13 October 2016

सत्यमेव जयते

झूठ से धन को रंगा,
पाप धोने चले गंगा;
कितना संभालेगी एक नदी,
मेरे पाप तो है अनगिनत लड़ी।

सत्य को क्यों नहीं मैं अपनाता?
क्यों असत्य मे उलझता और उलझाता?
प्यारा है मुझे क्षण-भर का सुख,
चाहे पहुंचे उससे कई दिन का दुख।

है संसार की एक ही रीत,
होती सदेव सत्य की जीत;
सत्य का स्वरूप ही है ऐसा,
निर्बल है उसके आगे भय और पैसा।

कभ समझेगा मन मेरा?
कभ छूटेगा झूठ का बसेरा?
रटा-रटा के थक गया रोहण,
अब तो मान जा मन, समाप्त हो चला यौवन!