26 September 2016

मानव कितना विचित्र है तू!

माँ के गर्भ मे रहता तू,
चार दिवारी में उसे रख न पाता तू;

प्रेमिका के लिए तारे तोडता तू,
क्रोध मे उसी रिशते को तोडता तू;

खुशी में भाई को गले से लगाता तू,
लोभ मे खुशी-खुशी उसका गला काटता तू;

सखा को अपना दर्पण मानता तू,
 फिर भी उससे मात्सर्य रखता तू;

भगवान से अपनी कामना पूर्ती करवाता तू,
भगवान कि आज्ञा का पालन नहीं चाहता तू;

मानव कितना विचित्र है तू!

2 comments:

Unknown said...

इन बातों को लेखनीबद्ध करने वाला भी तू,
मानव कितना विचित्र है तू!

अच्छा लिखा है।

Rohan Chawla said...

धन्यवाद :)